History of Satnami religion : सतनामी धर्म का इतिहास
History of Satnami religion : सारंगढ़ का सदियों पुराना इतिहास रहा है कि आज के समय में हम छत्तीसगढ़ राज्य में सतनाम का अलख जगा रहे है | ऐसा बताया जाता है कि औरंगजेब के कहर से सतनाम को बचाने के लिए नारनोल से पलायन कर सुरक्षित स्थान की तलाश में राजा बीरभान एवं उदयभान का आगमन सारंगढ़ की पावन भूमि में हुआ तब के समय में सारंगढ एक टापू के सामान था |
बांस का बहुत सघन जंगल और महानदी से घिरा सुरक्षित भू भाग जहाँ पर सतनामी राजा ने अपना गढ़ स्थापित किया जिसे आज सारंगढ़ के रूप में जाना जाता है | लेकिन दुर्भाग्य है सतनामियो का जिन्हें अपने इतिहास की सही वह ठीक ठीक जानकारी नही है |
सत्य की ज्ञान प्राप्त
गौर करने वाली बात है कि परंम पूज्य गुरु घासी दास जी को सारंगढ़ में सत्य का ज्ञान प्राप्त हुआ था आज से लगभग 352 वर्ष पूर्व का इतिहास हमें सतनामी गौरव को बताता है इसके बाद का समय हमारे सामने भरे पड़े है | जिसमे सतनामियो को दलित शोषित और न जाने क्या क्या लिखा गया है | सतनामी जाति के लोग सूर वीर क्षत्रिय थे |
नारनोल से सतनामियो का पलायन
जिन्होंने नारनोल में औरंगजेब की सेना को कई बार परास्त किया था | इनके पराक्रम की खबर लगते ही स्वयं औरंगजेब को मैदान में उतरना पड़ा था | इस लड़ाई में सतनाम समाप्त हो जाता लेकिन राजा उदयभान और बीरभान ने सतनाम की रक्षा के लिए नारनोल से पलायन कर सुरक्षित स्थान पर चले गए | सारंगढ़ क्षेत्र में सबसे पहले राजा उदयभान सिंग और बीरभान सिंग रहे | इन्होने यहाँ कब तक शासन किया इसकी ठीक ठीक जानकारी नही है |
हालाकि इनके बाद जो राजा यहा पर राज किए उनकी पूरी जानकारी मौजूद है | सतनामी विद्रोह के संबंध में केनवल भारती ने अपनी दलित विमर्स ब्लॉग में लिखते है कि भारत के इतिहासकारो ने सतनामीयो को बहुत घृणा से देखा है | इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि सतनामी दलित वर्ग से थे |
इतिहासकार उनके प्रति स्वर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहे, ये इतिहासकार डॉ. के प्रति भी इसी मानसिकता से ग्रस्त रहे है | इस लिए उन्होंने बाबा अंबेडकर को उचित स्थान देना चाहा न सतनामियो को | इसके अपवाद स्वरूप एक – कात इतिहासकार ने इसमें स्थान दिया भी तो है वह बहुत कम है |
सतनामी नामक हिन्दू संन्यासी की उदय की है जिन्हें मुंडी भी कहा जाता था | नारनोल और मेवाड के परगने में इनकी संख्या लगभग 4 या 5 हजार के करीब थी और जो अपने परिवार के साथ रहते थे ये लोग साधुओ के भेस में रहते थे | भीर भी कृषि और छोटे रूप में व्यापार किया करते थे | वे अपने आप को सतनामी कहा करते थे और वह अनैतिक वह गैर क़ानूनी ढंग से धन कमाने के विरोधी थे |
यदि कोई उन पर अत्या चार करता था तो वह उसका सासत्र विरोध किया करते थे | यह विवरण यदु नाथ सरकार के विवरण से मेल नही खाता है |
खाफी खान की दृष्टी
खाफी खान की दृष्टि में सतनामी ऐसे साधू थे जो मेहनत करके खाते थे और दमन अत्याचार का विरोध किया करते थे | जरूरत पड़ने पर वह हथियार भी चलाया करते थे उसके इतिहास में सतनामियो के एक बड़ा विद्रोह का भी पता चलता है | जो उन्होंने 1672 में ही औरंग जेब के खिलाफ किया था अगर वह विद्रोह न हुआ होता तो खाफी खान भी शायद ही अपने इतिहास में सतनामियो का जीक्र करता |
सतनाम विद्रोह
इस विद्रोह के बारे में वह लिखता है कि नारनोल में सीख दार राजस्व अधिकारी के एक प्यादे पैदल चलते एक सैनिक ने एक सतनामी किसान का लाठी से सिर फोड़ किया | इसे सतनामीयो ने अत्याचार के रूप में लिया और उस सैनिक को मार डाला |
नारनोल में सतनामियो की स्वतन्त्र सत्ता
सीख दार ने सतनामियो को गिरफ्तार करने के लिए एक टुकड़ी भेजी पर वह टुकड़ी परास्त हो गई | जिसे सतनामियो ने अपने धर्म के वियुद्ध आक्रमण समझा और उन्होंने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी | उन्होंने नारनोल के फौज दार को मार डाला और अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर के वह के लोगो से राजस्व वसूलने लगे |
जिसके चलते दिन ब दिन हिंसा बढ़ने लगी इसी बीच आस पास के जमीदारो और राजपूत सरदारों ने अपनी इस औसर का लाभ उठा कर राजस्व पर अपना कब्ज़ा कर लिया | जब औरंगजेब को इस बगावत की खबर उन्हें मिली तो उसने राजा बिसेन सिंग हामित खाएंन और कुछ मुग़ल सरदारों के प्रयास से कई हजार विद्रोही सतनामियो को मरवा दिया जो बाचे वह भाग गए | इस तरह से इस विद्रोह को कुचल दिया गया |
विद्रोह की विशालता
यह विद्रोह इतना बड़ा था कि इलियड और डावसन ने उसकी तुलना महाभारत से कि है हरियाणा की धरती पर यह सचमुच का दूसरा महाभारत था | सतनामियो के विद्रोह को कुचलने में हिन्दू राजाओ और मुग़ल सरदारों ने बादशाह का साथ इस लिए भी दिया क्योकि सतनामी दलित जातिओ से थे |
उनका उभारना सिर्फ मुश्लिम सत्ता के लिए ही नही हिन्दू सत्ता के लिए भी बहुत बडा खतरे का संकेत था | अगर सतनामी विद्रोह कामयाब हो जाता तो हरियाणा में सतनामियो की सत्ता होती और आज के समय में दलितों पर अत्याचार नही हो रहे होते |
सभी सतनामी दलित जातिओ से यद्यपि आरंभ में इस पंथ को चमार जाति के लोगो ने स्थापित किया था जो संत गुरु रवि दास के अनुयायी थे | पर बाद में उसमे अन्य दलित जाति के लोग शामिल हो गए | इलियट और डावसन लिखते है कि 1672 के समय से नामी विद्रोह की शुरुआत गुरु रवि दास की बेगम पुर की परिकल्पना से होती है |
जिसमे कहा गया है कि मेरे शहर का नाम बेगम पुर है जिसमे दुःख दर्द नही है | इसमें कोई टैक्स का लोगो के मन में भय नही है , न यहाँ पर पाप होता है , न सुखा पड़ता है , न भूख से कोई मरता है | इलियट लिखते है कि 15वी शदी में सामाजिक असामनता भय शोषण और अत्यचार से मुक्त शहर की परिकल्पना का जो आन्दोलन गुरु रविदास ने चलाया वह उनकी मृत्यु के बाद भी ख़त्म नही हुआ था |
सतनामी धर्म के अनुयायी
वरण उसकी इस परंपरा को उसके शिष्य उधोदास ने जीवित रखा था | वही से यह परंपरा बीर भान 1543 और 1618 में पहुची थी | जिसमे सतनामी पंथ की नीव डाली इस पंथ के अनुयायियो को साधू या साध कहा जाता था | वे एक नीराकार वह निर्गुण ईश्वर में विश्वास करते थे जिसे वे सत्पुरुष और सतनामी कहते थे |
आदि अमृत वाणी श्री गुरु रवि दास जी के अनुसार
ये शब्द सोऽहं सत्यनाम के साथ इस रूप में मिलते है | गुरु रवि दास के जिस पद में सत्य नाम शब्द आता है वह उनका यह पद है जो बहुत प्रसिद्ध है अब कैसे छूटे सत्यनाम नाम रट लागी प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी जाकी अंग अंग हम बात समाकी |
बीर भान दिल्ली के निकट पंजाब के नारनोल के पास ब्रजसार के रहने वाले थे | उन्होंने एक पोथी भी लिखा थी | जिसका महत्त्व सीखो के गुरु ग्रंथ साहेब के सामान था | जो सभी सतनामियो के लिए पूज्य था कहा जाता है कि सतनामी विद्रोह के बाद बचे हुए सतनामी भाग कर मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके में चले गए थे |
संभवतः उन्ही सतनामियो में 18वी शदी में गुरु घासी दास जन्म हुआ | जिन्होंने सतनामी पंथ पुनः जीवित कर एक व्यापक आन्दोलन का रूप दिया है | यह आन्दोलन इतना क्रांतिकारी था कि जमीदारो और ब्राम्हणों ने मिल कर उसे नष्ट करने के लिए बहुत से तरह के सद्यंत्र किये | जिनमे एक सद्यंत्र में उसे राम नामी संप्रदाय में उसे बदलने में कामयाब हो गए |
इसके संस्थापक परसुराम थे जो 19वी शदी के मध्य में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर इलाके में जन्म लिया था | कुछ जमीदारो और ब्राम्हणों ने मिल कर भारी दक्षिणा पर इलाहबाद से एक कथा वाचक ब्रम्हाण को बुलाया गया और उसे सारी योजनाए समझा कर परसुराम के घर भेजा जिसने उन्हें राजा राम की कथा सुनाई परसुराम के लिए यह एकदम नई कथा थी |
इससे पहले उसने ऐसी राम कथा नही सुनी थी वह ब्रम्हाण रोज परसुराम के घर जाकर उन्हें राम कथा सुनाने लगा | जिससे प्रभावित होकर वह सतनामी से राम नामी हो गए और निर्गुण राम को छोड़ कर सबुक के हथियारे राजा राम के भक्त हो गए |
उस ब्रम्हाण ने परसुराम के माथे पर राम राम ही गुदवा दिया | ब्राम्हणों ने यह उस समय किया जब सतनामी आन्दोलन चरम पर था और उच्च जातिय हिन्दू उसकी दिन प्रति दिन बढती लोकप्रियता से भैयभित हो रहे थे |
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